भारत में, सरकारी बीमा कंपनियों और प्राइवेट बीमा कंपनियों में बस एक ही फर्क है. सरकारी बीमा कम्पनियाँ क्लेम देने में भ्रष्ट हैं तो प्राइवेट बीमा कम्पनियाँ, बीमा करने में भी भ्रष्ट हैं.
प्राइवेट बीमा कम्पनियाँ सस्ते से सस्ता बीमा बेचने में होड़ करती हैं और क्लेम के वक़्त झट से नट जाती हैं कि फ़लां- फ़लां कारणों के चलते क्लेम दिया ही नहीं जा सकता. सरकारी बीमा कंपनियों के टॉप के बाबू निकम्मे ही नहीं हैं एकदम खाऊ भी हैं यही वह सबसे बड़ा कारण है कि सभी चारों सरकारी बीमा कम्पनियाँ केवल निवेश के छोटे-मोटे मुनाफे पर ही चल रही हैं अन्यथा प्रतिवर्ष १०० रूपये के प्रीमियम पर १०० रूपये से ज्यादा के क्लेम दे रही हैं.
१९७१ में साधारण बीमा उद्योग का राष्ट्रीयकरण भ्रष्टाचार व अव्यवस्था से उपजे घाटे के ही कारण किया गया था. आज फिर स्थितयां १९७१ जैसी ही हैं पर सरकार है कि कानों में रुई डाले सो रही है. हालत ये है कि लाखों करोड़ के इस पूरे उद्योग (जीवन बीमा सहित) को वित्त मंत्रालय में बस एक संयुक्त सचिव देखता है, मंत्री को तो इसके बारे में कोई हवा तक नहीं रहती कि उसकी नाक के नीचे हो क्या रहा है. IRDA के बारे में जितना कम कहा जाए उतना अच्छा.
कुछ साल पहले वित्त मंत्रालय का एक ऐसा ही बड़ा बाबू आयं-बायं स्थानान्तरण की नीति बना चलता बना, जिसे सरकारी कम्पनियाँ आज भी भरत की तरह राम-खड़ाऊँ समझ पूज रही हैं, जिसके चलते रहा-सहा व्यवसाय भी प्राइवेट बीमा कंपनियों की झोली में बैठे-ठाले चला जा रहा है क्योंकि सरकारी कम्पनियों के जो लोग जी-जान लगाकर सालों की मेहनत से इन क्लाएंटों को कम्पनी से जोड़े रखते थे उनका स्थानान्तरण, पालिसी के नाम पर दूर-पार कर दिया जाता है. यही कारण है कि सक्षम लोग सरकारी बीमा कम्पनियाँ छोड़ कर चले जा रहे हैं और नालायक आज इन कंपनियों को चला रहे हैं. बचे -खुचे डायरेक्ट रिक्रूट अधिकारी शाखा/मंडल प्रबंधन बनने के इच्छुक नहीं हैं लेकिन प्रोमोटी अधिकारी कूद-कूद कर आगे आ रहे हैं ताकि कंपनियों को जी भर कर लूटा जा सके व ऊपर वालों को हिस्सा पहुंचाया जा सके. प्राइवेट बीमा कम्पनियाँ चुन-चुन कर केवल मुनाफे वाला बीमा कर रही हैं, सरकारी बीमा कम्पनियाँ बाक़ी बचा-खुचा घाटे का सौदा ले रही हैं. अंतर समझने के लिए, कभी किसी प्राइवेट बीमा कंपनी से अपने वाहन का वैधानिक 'Third Party Only' बीमा करवाने की कोशिश करके देखिएगा :-))
सबसे मज़े की बात तो ये है कि हरियाणा काडर के जिस बड़े बाबू ने सरकारी बीमा कंपनियों के लिए यह स्थानांतरण पालिसी बनाई थी उसके बारे में कहा जाता है कि वह कुछ ही महीनों के छोटे से अरसे के लिए वित्त मंत्रालय में नियुक्त रहा और प्राइवेट बीमा कंपनियों से मोटी रक़म लेकर सरकारी बीमा कंपनियों के लिए स्थानांतरण पालिसी बना कर अपने रास्ते चलता बना. ये बात अलग है कि बाद में CBI ने उसे धर दबोचा था. राम जाने उसके बाद क्या हुआ.
प्राइवेट बीमा कम्पनियाँ सस्ते से सस्ता बीमा बेचने में होड़ करती हैं और क्लेम के वक़्त झट से नट जाती हैं कि फ़लां- फ़लां कारणों के चलते क्लेम दिया ही नहीं जा सकता. सरकारी बीमा कंपनियों के टॉप के बाबू निकम्मे ही नहीं हैं एकदम खाऊ भी हैं यही वह सबसे बड़ा कारण है कि सभी चारों सरकारी बीमा कम्पनियाँ केवल निवेश के छोटे-मोटे मुनाफे पर ही चल रही हैं अन्यथा प्रतिवर्ष १०० रूपये के प्रीमियम पर १०० रूपये से ज्यादा के क्लेम दे रही हैं.
१९७१ में साधारण बीमा उद्योग का राष्ट्रीयकरण भ्रष्टाचार व अव्यवस्था से उपजे घाटे के ही कारण किया गया था. आज फिर स्थितयां १९७१ जैसी ही हैं पर सरकार है कि कानों में रुई डाले सो रही है. हालत ये है कि लाखों करोड़ के इस पूरे उद्योग (जीवन बीमा सहित) को वित्त मंत्रालय में बस एक संयुक्त सचिव देखता है, मंत्री को तो इसके बारे में कोई हवा तक नहीं रहती कि उसकी नाक के नीचे हो क्या रहा है. IRDA के बारे में जितना कम कहा जाए उतना अच्छा.
कुछ साल पहले वित्त मंत्रालय का एक ऐसा ही बड़ा बाबू आयं-बायं स्थानान्तरण की नीति बना चलता बना, जिसे सरकारी कम्पनियाँ आज भी भरत की तरह राम-खड़ाऊँ समझ पूज रही हैं, जिसके चलते रहा-सहा व्यवसाय भी प्राइवेट बीमा कंपनियों की झोली में बैठे-ठाले चला जा रहा है क्योंकि सरकारी कम्पनियों के जो लोग जी-जान लगाकर सालों की मेहनत से इन क्लाएंटों को कम्पनी से जोड़े रखते थे उनका स्थानान्तरण, पालिसी के नाम पर दूर-पार कर दिया जाता है. यही कारण है कि सक्षम लोग सरकारी बीमा कम्पनियाँ छोड़ कर चले जा रहे हैं और नालायक आज इन कंपनियों को चला रहे हैं. बचे -खुचे डायरेक्ट रिक्रूट अधिकारी शाखा/मंडल प्रबंधन बनने के इच्छुक नहीं हैं लेकिन प्रोमोटी अधिकारी कूद-कूद कर आगे आ रहे हैं ताकि कंपनियों को जी भर कर लूटा जा सके व ऊपर वालों को हिस्सा पहुंचाया जा सके. प्राइवेट बीमा कम्पनियाँ चुन-चुन कर केवल मुनाफे वाला बीमा कर रही हैं, सरकारी बीमा कम्पनियाँ बाक़ी बचा-खुचा घाटे का सौदा ले रही हैं. अंतर समझने के लिए, कभी किसी प्राइवेट बीमा कंपनी से अपने वाहन का वैधानिक 'Third Party Only' बीमा करवाने की कोशिश करके देखिएगा :-))
सबसे मज़े की बात तो ये है कि हरियाणा काडर के जिस बड़े बाबू ने सरकारी बीमा कंपनियों के लिए यह स्थानांतरण पालिसी बनाई थी उसके बारे में कहा जाता है कि वह कुछ ही महीनों के छोटे से अरसे के लिए वित्त मंत्रालय में नियुक्त रहा और प्राइवेट बीमा कंपनियों से मोटी रक़म लेकर सरकारी बीमा कंपनियों के लिए स्थानांतरण पालिसी बना कर अपने रास्ते चलता बना. ये बात अलग है कि बाद में CBI ने उसे धर दबोचा था. राम जाने उसके बाद क्या हुआ.
यही कहानी TPAs (third party administrators) की भी है. सरकारी बीमा कंपनियों ने प्रशासनिक व्यय कम करने के नाम पर ३०% तक के कमीशन पर इन्हें नियुक्त किया. इन्होंने बीमित लोगों को काल-सेंटर के नंबर थमा अस्पतालों से यारी गाँठ ली. आम के आम और गुठलियों के दाम. प्रीमियम में से वैध कमीशन और अस्पताओं से भी बढ़ा-चढ़ा कर पेश किये जाने वाले बिलों में से कट. हींग लगी न फिटकरी और रंग भी चोखा चल निकला पर बकरे की मान कब तक ख़ैर मनाती...डूबती लुटिया के चलते बीमा कंपनियों ने बचाओ बचाओ चिल्लाना शुरू कर दिया है ....यह बात दीगर है कि इस सबका खामियाजा अगर किसी को भुगतना है तो वह बस उपभोक्ता है. स्वस्थ्य सुविधाओं के क्षेत्र में भारत को अमरीका की नहीं, ब्रिटेन की नीति अपनाने की आवश्यकता है.
ooooooo
लिखी तो ये टिपण्णी इस ब्लॉग के लिए थी
http://upchar.blogspot.com/2010/07/blog-post_1228.html
">स्वास्थ्य-सबके लिए
पर blogger.com ने प्रकाशित नहीं की ये कह कर कि टिपण्णी बहुत बड़ी है. इसलिए उसे अपने ब्लॉग पर पोस्ट कर hyperlink दिया लेकिन बाद में पाया कि वह टिपण्णी वहां प्रकाशित भी हो गयी.
अब तक गरीब ही पिसते थे। अब मध्यवर्ग को भी चपेट में लेने की तैयारी है।
ReplyDeleteसरकारी बीमा कंपनियों का ही नहीं हर सरकारी उपक्रम का यही हाल है. एच. एम. टी. और बी.एस.एन.एल. भी इसी राह पर हैं.
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