कुछ लोगों के दिमाग़ में यह अच्छे से बैठ गया है कि पुरूष केवल स्त्री का शोषक व केवल शोषक ही हो सकता है (कारण :- हो सकता है उनके घरों में या उनके आस पास ऐसा होता आया हो). ऐसे में उनकी आंखों पर एक ही मायोपिक चश्मा रहता है जिससे उन्हें यह बिल्कुल नहीं दिखता कि स्त्री व पुरूष एक दूसरे के पूरक भी हो सकते है (क्या है मन:स्थिति रूग्णता नहीं है?).
नवजात को स्तनपान कराना यदि स्त्री ममत्व भी परिलक्षित करता हो तो यह क्रिया पुरूष की गुलामी की द्योतक है क्या ! वहीं, सड़क पर सीटी बजाना या हाथ उठाने की हिमाकत को औचित्यपूर्ण विकृत मस्तिष्क ही ठहरा सकता है...
... one up man-ship के बजाय ज़रूरी है कि समाज के दोनों अंग ठंडे दिमाग़ से काम लें और posturing बंद करें.
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